विश्वधर्म ग्रंथ: मानवता की एकता, आध्यात्मिकता और प्रकृति का प्राचीन चित्रण। अनेक हाथ मिलकर एक ज्योति प्रज्वलित कर रहे हैं, जिसके केंद्र में 'ॐ' अंकित है।

एक मानवता • एक धर्म • एक सत्य

अखिल ब्रह्मांड की पीढ़ियों के लिए यह सार्वभौमिक ग्रंथ — सत्य का युग प्रत्येक आत्मा से ही प्रारंभ होता है।

क्या है विश्वधर्म

हे मानवपुत्र! विश्वधर्म ग्रंथ वह शाश्वत पुकार है, जो देश, काल, और सीमाओं से परे, समस्त मानवता को, प्रत्येक जीव को, एकता के सूत्र में पिरोने के लिए अवतरित हुई है। यह उस सत्य का उद्घोष है जो सभी प्राणियों को, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश को, सौहार्द और अखंड शांति में बांधता है। यह ग्रंथ किसी विशेष मत या पंथ का संकीर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करता, अपितु सभी धर्मों, सभी विश्वासों के मूल में स्पंदित उस एक परम सत्य को उजागर करता है, जो अखिल सृष्टि का आधार और प्राण है।

इसका परम उद्देश्य प्रत्येक जीवात्मा को उसके भीतर प्रसुप्त उस दिव्य चेतना से पुनः जोड़ना है, जो हमें निस्वार्थ प्रेम, असीम करुणा और सर्वभूतहित में सेवा के पवित्र मार्ग पर चलने की अंतःप्रेरणा देती है। यह स्मरण कराता है कि हम सभी एक ही विराट परिवार, एक ही परमपिता के अंश हैं, और हमारी वास्तविक शक्ति हमारी जाति, वर्ण, या बाहरी पहचान में नहीं, बल्कि हमारे साझा उद्देश्य — उस परम सत्य को जानने, जीने और समस्त ब्रह्मांड में प्रसारित करने में निहित है।

ग्रंथ के अध्याय

१: आरंभ

हे आत्मा! सुनो! इस संसार का प्रत्येक जीवन एक यात्रा है, एक महान उद्देश्य की ओर बढ़ता हुआ रास्ता। यह यात्रा केवल शारीरिक नहीं, आत्मिक भी है। इस यात्रा में हम सभी को एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है—एक ऐसे दृष्टिकोण की जो हमें हमारे वास्तविक उद्देश्य तक पहुँचाए, जो सत्य को जानने और जीने की दिशा में हो।

हमने अपनी मानवता को खो दिया है। हमने एकता की शक्ति को भूलकर विभाजन की राह पर कदम बढ़ाए हैं। प्रत्येक धर्म, प्रत्येक संस्कृति ने अपने अनुभवों और अतीत के आधार पर सत्य को पाया, लेकिन वह सत्य हमेशा एक ही रहा है। नाम बदला, रूप बदला, किंतु सत्य वही रहा।

यहां हम सत्य के उस बिंदु से शुरुआत करते हैं, जहाँ यह समग्र मानवता के लिए एक समान मार्ग बनता है। हम मानवता को एक साथ जोड़ने के लिए स सत्य के मूल सिद्धांतों पर लौटते हैं। इस पुस्तक का उद्देश्य केवल एक नए दृष्टिकोण का निर्माण करना नहीं है, बल्कि यह पूरी मानवता को एक मार्गदर्शन प्रदान करना है—वह मार्गदर्शन जो हमें सच्चे धर्म और जीवन के उद्देश्य से जोड़ता है।

दुनिया की सभी सभ्यताओं का सूत्र एक ही है।

चाहे वह आदम हो या मनु, हर सभ्यता ने अपने पहले पुरुष और पहली स्त्री की कहानी सुनाई है। ये दो नाम, दो कथाएँ, एक ही सत्य का प्रतिरूप हैं। आज हम आदम और मनु की तरह विभाजित हैं, लेकिन क्या हम जानते हैं कि वे दोनों वही चेतना थे, जो हमारे भीतर छिपी हुई है? यही चेतना ही धर्म का आधार है। वह चेतना जो हमें प्रकृति से जोड़ती है, सत्य से जोड़ती है, और हमें जीवन के वास्तविक अर्थ की खोज में दिशा दिखाती है।

हमारी समस्या यह है कि हमने नामों में और रूपों में सत्य को खो दिया है। हम विभाजन में बंट गए हैं—धर्म, संस्कृति, जाति, और अन्य आधारों पर। लेकिन अब समय है, इन सभी विभाजन से बाहर निकलकर, उस सत्य को समझने का जो हर युग में एक ही रहा है।


धर्म का अर्थ है:
धर्म किसी विशेष मज़हब या समुदाय से नहीं जुड़ा। धर्म वह है जो आत्मा को सत्य के साथ जोड़ता है। धर्म वह है जो जीवन के प्रत्येक कर्म में स सत्य, अहिंसा, और सेवा का पालन करता है। इस धर्म में कोई भेदभाव नहीं होता—यह सबके लिए समान है।

ईसा, बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मुहम्मद, नानक—सभी ने वही सत्य कहा, वही धर्म जीया। लेकिन हमने उनके संदेश को विभाजित कर लिया। एक ने इसे इस रूप में कहा, दूसरे ने उसे दूसरे रूप में बताया। परंतु सत्य वही था, और वही रहेगा।

समय है उस सच्चे धर्म के लिए तैयार होने का,
जो केवल नाम और रूपों से परे है। यह धर्म हमें सिर्फ एक मार्ग पर नहीं, बल्कि हर मार्ग पर सत्य की खोज की दिशा दिखाता है। जब हम इस सत्य को स्वीकार करेंगे, तब हम हर रूप, हर नाम, हर विभाजन से परे होंगे। हम जानेंगे कि हम सभी एक ही स्रोत से आए हैं—वह स्रोत जो हमें जीवन की सच्चाई और उद्देश्य का अहसास कराता है।

अब समय है, सत्य को जानने का,
वह सत्य जो हर युग में एक जैसा रहा है। यह वही सत्य है जिसे हम भूल चुके हैं, जो हमें हमारे मूल रूप से जोड़ता है। हम उसे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं, और अब हम इसे अपनी जीवन की दिशा बना रहे हैं। यही उद्देश्य है—सच्चे धर्म को समझना, सत्य को पहचानना, और इसे पूरी मानवता के लिए उजागर करना।

अब समय है, उन भ्रामक परंपराओं को छोड़ने का जो हमें बांधती हैं, और उसी सत्य को पहचानने का जो हमें मुक्त करता है। हम उस सत्य को जानते हैं—वह सत्य जो परमात्मा से जुड़ा है, और वह जो आत्मा में समाया है। यही समय है उस सत्य को जीने का, उसे फैलाने का, और इसे हर व्यक्ति के दिल में स्थापित करने का।


क्या हम तैयार हैं?
क्या हम तैयार हैं उस धर्म के लिए, जो केवल रूप नहीं, आत्मा से जुड़ा है? क्या हम तैयार हैं सत्य को जानने के लिए, और उसे जीवन में उतारने के लिए? अगर हम तैयार हैं, तो हम सत्य की राह पर चल सकते हैं—सभी भेदभावों से परे, सभी नामों से परे, और सिर्फ एक लक्ष्य के साथ—मानवता का कल्याण।

आओ, हम सभी मिलकर उस सत्य को पहचानें,
जो हर युग में एक जैसा था। यह सत्य ही हमें मानवता की वास्तविकता की पहचान कराएगा, और हमें एक ऐसे युग की ओर ले जाएगा जहाँ सभी मनुष्य एक-दूसरे के साथ प्रेम और शांति से जी सकते हैं।

यही है सत्य की राह, यही है धर्म की राह,
यह है हमारा आरंभ, और यही है हमारा उद्देश्य।

२: सत्य एक है, नाम अनेक

आदम और मनु—दो नाम, एक चेतना

मनुष्य जाति की हर सभ्यता ने अपने पहले पुरुष और पहली स्त्री की कथा कही—आदम और हव्वा (अब्राहमिक परंपराएँ), मनु और शतरूपा (भारतीय परंपराएँ), या अन्य नामों से। पर क्या ये सब अलग हैं? नहीं। ये सब उसी एक सत्य के विविध रूप हैं।

आदम—जिसे अब्राहमिक परंपराएँ “पहला मानव” मानती हैं।
मनु—जिसे भारतीय परंपरा “पहला मानव” और “धर्मग्य” मानती है।

नाम बदला, कथा बदली, पर भाव वही रहा—एक ऐसा मानव जो प्रकृति से जन्मा, जिसने पहला धर्म जिया: प्रकृति के साथ संतुलन, सत्य के साथ जीवन।

हमने नामों में फँसकर भाव खो दिया। हमने प्रतीकों को पूजा और मूल उद्देश्य भूल गए।

अब समय है मूल भाव पर लौटने का—नाम नहीं, सत्य देखो। भाषा नहीं, आत्मा सुनो।


धर्म का अर्थ है—धारण करने योग्य सत्य। न कि नाम, मूर्ति या रस्में।
हर युग में, हर भूमि पर जन्मे ज्ञानी एक ही सत्य बोले:

  • परमात्मा एक है।
  • आत्मा उसी का अंश है।
  • जीवन का लक्ष्य है—उस सत्य को जानना, जीना, और फैलाना।

ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, कृष्ण, नानक, महावीर—सब ने वही एक धर्म जिया—सत्य, करुणा, सेवा, अहिंसा, त्याग।

पर हमने उन्हें बाँट दिया—मज़हबों में, किताबों में, सीमाओं में।


अब समय है:

  • धर्म को धर्म की तरह समझने का—not religion, बल्कि धर्म.
  • संप्रदाय नहीं, समभाव अपनाने का।
  • कथाओं के पीछे छिपे सत्य को जीने का।

सत्य को जानो। जीवन को साधो। सृष्टि को बचाओ। यही विश्वधर्म है।

३: यंत्र-युग से यज्ञ-युग की ओर वापसी

हम आज जिस युग में हैं, वह यंत्रों का युग है—मशीनें, मोबाइल, पैसे, नौकरियाँ, दवाइयाँ, इलाज, प्लास्टिक का खाना, कृत्रिम सुख।

पर क्या यही जीवन है?
नहीं। यह मृत्यु की ओर जाता एक रास्ता है।

आज हम डॉक्टरों के ग्राहक बन चुके हैं।
हम ज़िंदा हैं, पर जीवन नहीं बचा।

हम नौकरी करते हैं रोटी के लिए—आत्मा के लिए नहीं।

हम परिवार बनाते हैं, पर समय उनके लिए नहीं बचता।

हमने धन के लिए आत्मा बेची, खेत छोड़े, गाय छोड़ी, वन छोड़े, माँ-बाप तक छोड़ दिए।

अब समय है वापसी का—
वापसी उस युग की ओर जिसे हम ‘सत्ययुग’ कहते हैं।


स सत्ययुग का अर्थ क्या है?
सत्ययुग कोई पौराणिक सपना नहीं।
स सत्ययुग वह अवस्था है जहाँ हर मानव:

  • सत्य बोलता है, छल नहीं करता
  • आत्मज्ञान पाता है, अज्ञान नहीं फैलाता
  • खेती करता है, व्यापार नहीं लूटता
  • सेवा करता है, स्वार्थ नहीं पालता
  • प्रकृति के साथ जीता है, उसे नष्ट नहीं करता
  • शरीर से संयमित, मन से शांत, आत्मा से मुक्त होता है

हम क्या करें?

  1. नौकरी नहीं—खेती करो।
    पेट भरने के लिए मशीन या पैसा नहीं चाहिए—धरती चाहिए, बीज चाहिए, समय चाहिए।
    हर परिवार अगर सिर्फ अपनी ज़रूरत भर उपजाए, तो कोई भूखा नहीं रहेगा।
    अगर बच जाए—तो बांटो, या बार्टर करो, जैसे पहले होता था।
  2. बच्चों को वही बनाओ जो तुम न बन सके।
    उन्हें बचपन से सिखाओ:
    • आत्मा क्या है
    • सच्चा धर्म क्या है
    • सेवा, संयम, सच्चाई कैसे जिएँ
    • मोबाइल नहीं, मौन से बात करो
    • स्कूल नहीं, गुरुकुल दो
  3. मन को रोको, सुख को साधो।
    आज का सुख, कल की पीड़ा है।
    टीवी, इंस्टाग्राम, फ़ास्ट food, नशा, भोग—ये सब विकार हैं।
    इन्हें त्यागो, वरना सत्य नहीं मिलेगा।
  4. समूह बनाओ। गाँव बनाओ। सामूहिक खेती करो।
    एक परिवार अकेला नहीं बदलेगा। पर बीस परिवार मिलकर एक सत्यग्राम बना सकते हैं।

सत्य की राह कठिन है—पर यही मुक्ति है।
हम एक दिन में संन्यासी नहीं बन सकते।
अगर हम सच्चे दिल से कोशिश करें, और अपने बच्चों के मन में सच का बीज बो दें, तो बदलाव ज़रूर आएगा,
तो अगली पीढ़ी सत्ययुग की संतान होगी।

आज हम बीज हैं।
कल वो वटवृक्ष होंगे।

४: जीवित धर्म—जीवन के कर्म

हम सब इस संसार में एक कारण से आए हैं—धर्म के पालन के लिए।
धर्म का अर्थ किसी धर्मग्रंथ या धार्मिक पुस्तक में नहीं छिपा है—धर्म है जीवन का हर कर्म, हर विचार, हर कार्य जो सत्य, अहिंसा और सेवा से जुड़ा हो।
धर्म कोई बंधन नहीं है, यह तो स्वाभाविक सत्य है जो हमारे भीतर होता है।
हमारे शरीर में जो जीवन है, वही धर्म है। जो इसे समझता है, वही सच्चा साधक है।


धर्म का पालन कैसे करें?
हम सभी यह सवाल करते हैं—
"क्या हमें अपना कर्म बदलना चाहिए?"
नहीं।
सत्य यह है कि हमें अपने वर्तमान कर्म को पवित्र बनाना है।
अपने परिवार के प्रति दायित्व, अपने गाँव और समाज के प्रति दायित्व—यही हमारा धर्म है।
लेकिन, जब हम अपने कर्मों में स्वार्थ और माया की घुसपैठ को महसूस करें, तो हमें मूल उद्देश्य को समझना चाहिए।
धर्म का पालन कोई और नहीं करेगा—यह हमारे हाथ में है।
हम अपना कर्म छोड़ नहीं सकते, पर उसे शुद्ध कर सकते हैं।


धर्म का पालन करने का तरीका:

  1. आत्मनिर्भरता।
    सत्ययुग में कोई भी व्यक्ति अपने पेट की खातिर दूसरों पर निर्भर नहीं था।
    आज हमें कृषि में लौटना होगा। हर किसी को अपनी ज़रूरत के लिए धरती से उपजाना होगा।
    किसी के साथ अन्न का व्यापार नहीं करना—बल्कि बार्टर प्रणाली अपनानी होगी।
    एक हाथ से खाओ, दूसरे से देना सीखो।
  2. दुनिया को सेवा ही धर्म बनाओ।
    इस जीवन का उद्देश्य है सेवा।
    यदि हम इस जीवन में स्वार्थ के लिए जीते हैं, तो हम जीवित होते हुए भी मृत हैं।
    कर्मयोग से सेवा करो, बिना किसी फल की इच्छा के।
    हर जीव को सम्मान दो—पशु, पक्षी, पेड़—सभी का जीवन मूल्यवान है।
  3. शुद्ध आहार।
    हम जो खाते हैं, वही बन जाते हैं।
    शाकाहारी भोजन अपनाओ, क्योंकि हर जीवित प्राणी का जीवन परमात्मा का रूप है।
    मांसाहार, शराब और नशा—ये सब हमें अज्ञान की ओर ले जाते हैं, सत्य से दूर करते हैं।
    आध्यात्मिक आहार ग्रहण करो, जिसमें प्रेम, सम्मान और सत्य हो।
  4. मन को नियंत्रित करो।
    हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारा मन है।
    जब मन विकारों से भरा होता है, तो हम धर्म को छोड़कर अपने स्वार्थ और इच्छाओं में डूब जाते हैं।
    ध्यान, योग, और साधना से मन को शांत करो।
    केवल तब तुम अपने भीतर के सत्य को महसूस कर सकते हो।
  5. संबंधों में पवित्रता।
    आज का समाज परिवारों को छोड़ने, संबंधों को तोड़ने का समाज बन चुका है।
    सत्ययुग में परिवार जीवन का आधार थे।
    हर सदस्य एक दूसरे की मदद करता था, कोई माँ-बाप को छोड़कर भागता नहीं था, बल्कि उन्हें अपनी सेवा का हिस्सा मानता था।
    कुलधर्म निभाओ। पारिवारिक रिश्तों में सम्मान और समानता रखें।

धर्म का पालन कोई आसान रास्ता नहीं है।
यह एक लंबा और कठिन सफर है, जहाँ हर कदम पर अपने भीतर की इच्छाओं और संसार की माया से जूझना होता है।
लेकिन यह रास्ता ही वह है जो हमें सच्चे शांति और मोक्ष की ओर ले जाएगा।
आज जो कार्य हम करते हैं, वही हमारी साधना है। हर कर्म जो हम करते हैं, उसे हम धर्म के रूप में देख सकते हैं।
हमारी सच्ची पूजा तब होती है जब हम सत्य से जुड़े होते हैं—जब हमारा प्रत्येक कर्म समाज और मानवता की सेवा में होता है।


अगला कदम:
सभी कर्मों का फल यही है—आत्मज्ञान।
जब हम जानेंगे कि हम किसके लिए जीते हैं, तो बाकी सब सुलझ जाएगा।
आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम सत्य यही है।
आध्यात्मिक ज्ञान को हर घर में फैलाओ। हर बच्चे को बचपन से सिखाओ।
हम जो सीखते हैं, वही अगली पीढ़ी को देना चाहिए, ताकि अगली पीढ़ी बिना किसी भ्रम के सत्य की राह पर चल सके।

५: एकता—हम सबका उद्देश्य

दुनिया में हर इंसान का जन्म एक उद्देश्य से हुआ है—सत्य का पालन करना और दूसरों को भी उस सत्य से अवगत कराना।
हम सब एक ही स्त्रोत से आए हैं—मनुष्य का सबसे बुनियादी उद्देश्य है आत्मज्ञान प्राप्त करना और जीवन को धार्मिक दृष्टिकोण से जीना। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमें अपनी सोच और कार्यों में एकता लानी होगी।


एकता का क्या अर्थ है?
आज के समाज में धर्म, संस्कृति, देश और भाषा के आधार पर हम विभाजित हैं।
लेकिन क्या हमें नहीं समझना चाहिए कि जब सत्य एक है, तो हम सब क्यों अलग हैं?
चाहे हम हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों, ईसाई हों—हम सभी का एक ही लक्ष्य होना चाहिए, और वह है सत्य का अनुसरण।
हमें अपनी धार्मिक पहचान को नहीं, बल्कि मनुष्यत्व को प्राथमिकता देनी चाहिए।
हमारे शरीर की रक्त की धारा एक जैसी है, हमारी आत्मा भी एक ही सत्य से जुड़ी हुई है। यही कारण है कि हम सभी के धर्मों और विचारों में एकता होनी चाहिए।
सभी को समान मानते हुए हम सभी मानवता के साथ एकजुट होकर सत्य की ओर बढ़ सकते हैं।


धर्म नहीं, सत्य का पालन करो।
आज के समय में धर्म के नाम पर बहुत सारे मत-मतांतर हैं। हर किसी का अपना धर्म है, लेकिन सभी धर्मों के अंतर्गत एक ही मूल सत्य है।
हम धर्म के नाम पर एक दूसरे से लड़ रहे हैं, जबकि सत्य ही हमें एकजुट करने वाला है।
हमारी यात्रा का उद्देश्य धर्म नहीं, बल्कि एक जीवन है जिसमें हम सच्चाई, प्रेम और एकता का पालन करें।


एकता में शक्ति है।
दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति एकता में है। जब हम एकजुट होकर सत्य की खोज करते हैं, तो कोई भी शक्ति हमें रोक नहीं सकती।
हम सबका उद्देश्य एक होना चाहिए—स सत्य के मार्ग पर चलना और इस संसार में शांति और प्रेम फैलाना।
हमारी समस्याएं तब तक हल नहीं हो सकतीं जब तक हम एकता और सहयोग की भावना से काम नहीं करेंगे।


सर्वधर्म समभाव
हमारे समाज में हर धर्म का सम्मान करना चाहिए। यह समय है कि हम धर्म के नाम पर नफरत और भेदभाव को खत्म करें, बल्कि एक दूसरे को समझें और सम्मान दें।
सर्वधर्म समभाव का सिद्धांत यही कहता है—हर धर्म सत्य की ओर एक रास्ता है।
हम सभी को एक ही ध्येय में लगना चाहिए, जो मानवता का कल्याण है।


समाज का पुनर्निर्माण
हमारे समाज में जो भी बुराईयाँ हैं—यह सब उस समय से आई हैं जब हमने अपने उद्देश्य को भुला दिया।
हमने भौतिकता और स्वार्थ को प्राथमिकता दी, जबकि मानवता, आत्मज्ञान और एकता की राह पर चलना ही हमारा असली उद्देश्य है।
हम सबको मिलकर समाज में एकता की भावना जागृत करनी होगी, और सभी को यही समझाना होगा कि सभी लोग एक ही उद्देश्य से आए हैं, बस उनके मार्ग अलग हो सकते हैं।


एक नई शुरुआत
समाज में हर आदमी के अंदर यह शक्ति है कि वह आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाकर अपनी और पूरे समाज की दिशा बदल सकता है।
हर व्यक्ति को अपनी आत्मा से जुड़ना होगा, ताकि वह खुद को पहचान सके और अपने समाज को पहचान दे सके।
समाज में एकता लाने के लिए हमें व्यक्तिगत सुधार की आवश्यकता है। यह केवल समाज या राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
आध्यात्मिकता, सच्चाई और प्रेम को अपनाकर हम नई दुनिया का निर्माण कर सकते हैं, जहां हर व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचानते हुए, सत्य का पालन करता है।
यह हमें एकजुट करता है, और हम एक-दूसरे को समझने और सम्मान देने के रूप में एक नये युग की शुरुआत करेंगे।


अगला कदम:
समाज में एकता और प्रेम फैलाने के लिए अभ्यास, साधना और संयम जरूरी है।
हमारा उद्देश्य समाज के हर व्यक्ति को आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है।
अंत में, जब हम अपने अंदर की एकता और प्रेम को महसूस करेंगे, तब सभी जीवों में उस प्रेम का विस्तार होगा, और यही सत्ययुग की शुरुआत होगी।

६: पाप का मूल—धन की भूख और मानवता का पतन

आज का युग बीमारी से नहीं, मानसिक और आत्मिक पतन से पीड़ित है।
धर्म, जो पहले सेवा का नाम था, आज वह एक पेशा का रूप ले चुका है।
डॉक्टर, जिसका धर्म था जीवन रक्षा, वह अब हड़ताल पर बैठता है, क्योंकि उसे पैसा कम लग रहा है।
किसान, जिसका धर्म था पेट भरना, वह अब हड़ताल पर बैठता है, क्योंकि उसे पैसा कम लग रहा है,
और खेत से ज़हर उगाकर समाज को बीमार कर रहा है।


कहाँ से आया यह रोग?
बीमारी पहले समाज में नहीं, विचारों में फैली।
जंगल कटे, शहर पनपे।
गांव मिटे, कॉलोनी बनी।
पेड़ की जगह ईंट लगी।
नदी की जगह सीवर बहा।
तब जन्मा मच्छर,
तब आया वायरस,
तब बढ़ी बीमारी,
तब बना हॉस्पिटल,
तब डॉक्टर हुआ बिज़नेस मैन,
और तब मानवता मरी।


धन—विकास नहीं, विनाश है जब उसका लक्ष्य केवल स्वार्थ हो
आज का बच्चा जन्म से ही “जॉब के लिए पैदा” होता है।
ना आत्मा को जानता है,
ना खेत को छूता है,
ना गाय की सेवा जानता है,
ना माँ-बाप का मोल।
हर व्यक्ति अब पैसा कमाने की मशीन बन चुका है।


समाधान क्या है?

  • फिर से खेती को धर्म बनाओ, धंधा नहीं।
  • डॉक्टर को फिर से वैद्य बनाओ, सेवक, व्यापारी नहीं।
  • शिक्षा को आत्मज्ञान से जोड़ो, डिग्री नहीं।
  • शहर नहीं, गांवों को पुनः जीवित करो।
  • औलाद को पैसा नहीं, संस्कार दो।
  • भविष्य को स्वर्ग बनाना है? तो आज का भोग त्यागना पड़ेगा।

नया युग तब आएगा जब:

  • हर इंसान अपने पेट से ज़्यादा दूसरों की भूख देखेगा।
  • डॉक्टर सेवा करेगा चाहे बिना फीस के।
  • किसान ज़हर नहीं, ज़मीन की पूजा करेगा।
  • और माँ-बाप औलाद को विदेश नहीं, धरती से जोड़ेंगे।

यह है सत्ययुग का बीज—जो आज बोया जाएगा, आने वाली पीढ़ियाँ उसे फल की तरह पाएँगी।
हम नहीं बदल सकते सबकुछ एक दिन में,
पर अपने बच्चों को बदलकर, हम आने वाले युग को बदल सकते हैं।
सत्य को जियो, और अगली पीढ़ी सत्य को जन्म देगी।

७: शिक्षा नहीं, आत्मबोध चाहिए — अंधे ज्ञानी नहीं, जागे हुए आत्मज्ञानी चाहिए

आज की शिक्षा क्या सिखाती है?

  • डिग्री लो।
  • नौकरी करो।
  • पैसा कमाओ।
  • EMI भरो।
  • और अंत में—थककर मर जाओ।

पर क्या ये जीवन है?
नहीं।
ये एक प्रोग्राम किया हुआ सिस्टम है,
जहाँ हर बच्चा गुलाम बनकर जन्म लेता है।


गुरुकुल था, अब स्कूल है। फर्क समझो।

गुरुकुल और स्कूल की शिक्षा का वह अंतर, जहाँ कभी शिक्षा आत्मा का स्पर्श करती थी, अब वह केवल अंकों की दौड़ बन गई है।
गुरुकुल (प्राचीन शिक्षा) स्कूल (आधुनिक शिक्षा)
जीवन का ज्ञान (आध्यात्मिक और व्यावहारिक) जॉब का ज्ञान (व्यवसायिक और तकनीकी)
ध्यान और आत्मचिंतन (आंतरिक विकास) रट्टा और कम्पटीशन (बाहरी प्रदर्शन)
गुरु का आश्रय (मार्गदर्शन और संस्कार) सिस्टम का दबाव (नियम और परीक्षा)
आत्मा का विकास (चरित्र और विवेक) मार्क्स का आतंक (अंक और प्रतिस्पर्धा)

आधुनिक शिक्षा का फल क्या है?

  • बच्चा मशीन बनता है।
  • माँ-बाप उसे कोडर, डॉक्टर, MBA, IAS बनाना चाहते हैं—इंसान नहीं।
  • वह भूल जाता है कि उसका जन्म धर्म के लिए हुआ है, सिर्फ धन के लिए नहीं।

समाधान: नया शिक्षा धर्म

  1. आत्मज्ञान पहली किताब हो।
    बच्चा पहले सीखे “मैं कौन हूँ?”—शरीर नहीं, आत्मा हूँ।
  2. कृषि, गाय, प्रकृति और योग अनिवार्य हो।
  3. संस्कार स्कूल से नहीं, घर से शुरू हों।
  4. गुरु वही जो खुद ज्ञानी हो—(गुरु वह है जो स्वयं सत्य को जीता हो—वेतन पाने वाला कर्मचारी नहीं)।
  5. हर बच्चा अपने धर्म, प्रकृति और शरीर का सम्मान करे।

भविष्य की पीढ़ी को कैसी शिक्षा दें?

  • जो पैसा नहीं, सेवा को लक्ष्य बनाए।
  • जो पृथ्वी की रक्षा को धर्म समझे।
  • जो माँ-बाप को भगवान माने।
  • जो विवेक और करुणा को हथियार बनाए, और धन को सिर्फ साधन समझे।

याद रखो:
पुस्तकों से ज्ञानी बना जा सकता है,
पर आत्मज्ञानी सिर्फ “सत्य” को जीकर बना जा सकता है।

८: भारत—सिर्फ एक देश नहीं, धरती का धर्म-हृदय था

भारत क्या था?
आज जो “इंडिया” है, वह कभी भारतवर्ष, जम्बूद्वीप, अखण्ड भारत इतिहास था—सिर्फ एक भूखंड नहीं, एक धर्म की जीवित चेतना।
यहाँ धर्म का अर्थ था—स सत्य में जीना, प्रकृति के साथ चलना, आत्मा की पहचान करना।


1. सतयुग में भारतवर्ष: “धर्म ही जीवन था”

  • न राजा को सत्ता का लोभ था, न प्रजा को धन का मोह।
  • ऋषि-मुनि राजाओं को राजधर्म सिखाते थे।
  • हर घर तपोवन था—जहाँ ध्यान, सेवा और सादगी ही जीवनशैली थी।
  • प्रकृति को पूजा नहीं—माँ माना जाता था।

सत्य, शांति, तप और त्याग = सतयुग का भारत


2. त्रेतायुग में भारतवर्ष: “राजा बने मर्यादा पुरुषोत्तम”

  • श्रीराम ने दिखाया—राजा बनना आसान है, पर धर्मपूर्वक राज करना ही सच्चा तप है।
  • धर्म और शासन एक थे।
  • सीता का वनवास, राम का त्याग—ये दिखाते हैं कि व्यक्तिगत सुख नहीं, समाज का धर्म बड़ा होता है।
  • शिक्षा, संस्कार, कृषि, विज्ञान—सब प्रकृति-संगत थे।

त्याग, मर्यादा, सेवा = त्रेता का भारत


3. द्वापरयुग में भारतवर्ष: “धर्म संकट में, पर कृष्ण चेतना में”

  • धर्म पर अधर्म हावी होने लगा।
  • महाभारत हुआ, पर श्रीकृष्ण ने ज्ञान दिया:
    “जब धर्म डगमगाए, तब चेतना से लड़ो—हथियार नहीं सिर्फ।”
  • गीता = संसार का पहला मन का संचालन तंत्र।

बुद्धि, भक्ति, विवेक = द्वापर का भारत


4. कलियुग पूर्व INDIA: “ज्ञान, चिकित्सा और अध्यात्म का वैश्विक केंद्र”

  • तक्षशिला, नालंदा, पाटलिपुत्र = विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालय।
  • शून्य, योग, आयुर्वेद, वास्तु, खगोल विज्ञान—सब भारत ने दुनिया को दिया।
  • भारत की गाय, गीता, गुरु —पूरी दुनिया में सम्मानित थे।
  • सब धर्म यहाँ आकर शरण पाते थे।

5. फिर क्या हुआ?

मुगल आये—धर्म पर हमला हुआ

  • मन्दिर टूटे, ग्रंथ जले, गुरुकुल मिटे।
  • भारत की आत्मा पर तलवार चलाई गई।
  • लेकिन फिर भी भारत मिटा नहीं—क्योंकि धर्म भीतर था।

अंग्रेज़ आए—मनोविज्ञान पर हमला हुआ

  • शिक्षा बदली।
  • अंग्रेज़ी और नौकरी ही “प्रगति” बन गई।
  • आत्मा भूल गए, सिर्फ दिमाग़ से जीने लगे।
  • हमें अपने पूर्वजों से नफ़रत करना सिखाया गया।

6. आज अखण्ड क्या है?

  • धर्म = बिज़नेस
  • मंदिर = कंपनी
  • साधु = सेल्फी star
  • किसान = कीटनाशक व्यापारी
  • डॉक्टर = अमीरों का भगवान
  • शिक्षा = नौकरी के लिए गुलामी
  • रिश्ते = सोशल media post
  • धर्म = डिवाइड एंड रूल

जम्बूद्वीप आज ज़िंदा है—पर एक बीमार आत्मा।


7. अब क्या करना है?

  • फिर से आत्मज्ञान को राष्ट्रीय शिक्षा बनाओ।
  • फिर से कृषि को सम्मान दो—धन नहीं, धर्म समझो।
  • फिर से संत, ऋषि, किसान, सैनिक, सेवक—इनको समाज का सिर बनाओ।
  • फिर से धर्म को जीवित सत्य बनाओ—बिज़नेस नहीं।

भारत को फिर अखण्ड इतिहास बनाना है।
हमें “इंडिया” नहीं, “जम्बूद्वीप” चाहिए—जहाँ हर मानव फिर से देवता बने, जहाँ प्रेम और सम्मान की विजय हो।

९: नवगीता – सतयुग की उद्घोषणा

हे समस्त ब्रह्मांड की आत्माओं! यह किसी बीते हुए युग की गाथा नहीं, यह भविष्य के गर्भ में छिपे उस दिव्य सत्ययुग की शाश्वत गीता है, जो तुम्हारे भीतर से ही प्रकट होगी। यह न केवल किसी अर्जुन नामक एक योद्धा के लिए है, न ही यह किसी विशेष देश, जाति या तथाकथित धर्म के अनुयायियों के लिए सीमित है। यह तो अखिल सृष्टि की, समस्त चराचर जगत की, आंतरिक गीता है।
यह किसी विनाशकारी युद्ध के अंत की नहीं, यह एक नवीन, प्रेममय, प्रकाशमान सृष्टि के दिव्य आरंभ की गीता है। यह सोई हुई मानवता की चेतना को, प्रत्येक जीव की आत्मा को, उसके माया-निर्मित बंधनों से मुक्त कर, पुनः उसके सच्चिदानंद स्वरूप में जाग्रत कर देने का अमृतमय, आकाशवाणी तुल्य संदेश है। इसे सुनो, गुनो, और अपने जीवन में उतारो!









यह नवगीता यहाँ विश्राम लेती है, परंतु इसका ज्ञान तुम्हारे ह्रदय में, तुम्हारे कर्मों में, तुम्हारी चेतना में निरंतर स्पंदित होता रहे। यह शाश्वत ज्ञान केवल पढ़ने या सुनने के लिए नहीं, बल्कि अपने जीवन में अक्षरशः उतारने के लिए, अनुभव करने के लिए, और समस्त सृष्टि के साथ साझा करने के लिए है।

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। जय मानवधर्म! जय विश्वधर्म! जय प्रकृति माता! जय सत्ययुग!